तुम्हारी खिड़की

मेरे कमरे की खिड़की और मैं अक्सर बाहर से गुजरते लोगों को देखा करते है। सबको जल्दी कही जाना होता है, कुछ देर वो जाते हुए दिखाई देते है। फिर नजरों के दायरों से ओझल हो जाते है। मुझे अक्सर इसकी याद कुछ खास पलों पर आती है।

जब मैं अकेला होता हूँ, जज्बात जाहिर करना जब फिजूल लगता है। तब मैं इसके पास आता हूँ ये मुझे अपने पास आता देख लगता है जैसे मुझे कहती हो- “आगये तुम? देखों तुम्हारे लिये हवा से हिलते पेड़ों के पत्ते सजा रखे है।” ये पत्ते और सामने वाले घर मे खिलते गुलाब, आँखों को रंगीन नजारे देने के लिये मेने प्रकृति से उधार लिए है। सारे जवाब ये तुम्हे ठंडी हवा के साथ देंगे। ये उन शब्दों का इस्तेमाल नही करते, जिनका दुनियां कड़वी या मीठी जुबान से भाषाओं में तुम्हे देती है। 

इनका ना तो बनावटी चहरा होता है और ना ही दिखावटी लहजा। वों सारे दुःख जो घाव बनकर दर्द दे रहे है, ये नजारे हर दर्द से निजात दिलाते है। तुम्हे अच्छा लगेगा और तुम फिर से दुनिया देखने मुझसे दूर चले जाओगे, फिर आने के लिये, फिर अपना दुनिया से मिला दुःख बताने के लिये। और मैं फिर से तुम्हारे लिये, यहीं तुम्हारे कमरे में खुलने का इंतज़ार करूँगी…       

तुम्हारी खिड़की….           

About The Author(s)

Share Your Voice

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *