हमारे देश में जिस भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, जिस भाषा का गुणगान विश्व पटल पर होता है।
वर्तमान में उसी भाषा पर भारी संकट आता दिखाई पड़ रहा है। हिन्दी भाषा ने ही भारत को गौरवान्वित किया है, प्राचीन संस्कृति और सभ्यता से अवगत कराया है। साहित्यिक विद्वता के प्रखर ओजस्वी को जन्म देनी वाली हमारी मातृभाषा ही जब अस्तित्व से मिटाई जाने लगे तो हमारी आत्मा और मातृत्व निर्जीव हो जाती है।
जिस हिन्दी ने रामधारी सिंह दिनकर जैसे राष्ट्रकवि, सुमित्रानंदन पंत जैसे प्रकृति के सुकुमार कवि, आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली महादेवी वर्मा जैसी महान कवयित्री को जन्म दिया हो, भारत को गौरव दिलाकर विश्व पटल पर विद्वता की रेखा खिंची हो उसी भाषा को आज सिर्फ देशभक्ति और इज्जत का सवाल बनाकर छोड़ दिया गया है।
आजादी के 70 साल बाद भी हमारे देश में अंग्रेजों की अंग्रेज़ी को पुरजोर समर्थन दिया जा रहा है। उच्च शिक्षा में हिन्दी को पीछे धकेल कर अंग्रेजी अपना वर्चस्व स्थापित करने में शत्- प्रतिशत् सक्षम है।
भारत को विश्वगुरू कहा जाता है और इसी देश में मातृभाषा के साथ खिलवाड़ किया जाता है, यह हमारे देश का दुर्भाग्य है। भारत को भाषा का आदर करना और मातृमहत्ता को बढ़ावा देने के लिए फ्रांस जैसे देश से सीखने की जरूरत है जो अपनी राष्ट्रभाषा और मातृभाषा में रोजगार देता है। भारत में बेरोजगारी का एक यह भी कारण है कि हिन्दी समेत सभी क्षेत्रीय भाषाओं में रोजगार को लगभग खत्म कर दिया गया है। प्राइवेट से लेकर सरकारी नौकरी के निम्न से लेकर उच्च स्तरीय परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता वर्तमान सरकार के हिन्दी गुणगान के पीछे छुपे झूठ को साफ दिखाती है।
यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे विविध संस्कृति, परंपरा और भाषा वाले देश में क्षेत्रीय भाषाओं को रोजगार के क्षेत्र में तिलांजलि दी जा रही है। वर्तमान में हिन्दी को केवल राष्ट्रीभक्ति, देशभक्ति का भाषा बनाकर छोड़ दिया गया है। किसी भी भाषा को मातृभाषा के नाम पर आखिर कितना दिन तक बचाया जा सकता है ? अगर सरकार सचमुच हिन्दी की अस्मिता को कायम करता चाहती तो रोजगार देती न कि अंग्रेजी के वर्चस्व को अपनी धरोहर मान लेती। गरीबी दूर करने की बात करने वाली सरकार अगर गरीबों की भाषा में रोजगार देती तो ग्रामीण परिवेश और अभावग्रसत परिवेश में पले- बढ़े बच्चों को नई आशा की किरण दिखाई देती।
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, लेकिन भारत जैसे देश में भाषा को योग्यता का आधार माना जाता है। भाषायी भेदभाव के शिकार बच्चे आज दुविधाग्रस्त होकर अपने भविष्य की चिन्ता में खुद को चिता बनाने को मजबूर हो जाता है। एकतरफ हिन्दी को आज विभिन्न देशों के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है वहीं हमारे देश में हिन्दी आज रोजगार मांग रही है, अपनी गरिमा और अस्मिता को बचाने की गुहार लगा रही है।
2014 में जब वर्तमान सरकार का गठन हुआ तो हमारे देश के प्रधानमंत्री ने बड़े भावुकता के साथ हिन्दी भाषा का गुणगान किया था और इसके विकास का वादा किया था। लेकिन वादा विपरीत दिशा में बदल दिया गया।
देश की सबसे बड़ी परीक्षा यूपीएससी में हिन्दी के प्रभाव को खत्म करने के लिए यूपीएससी द्वारा आयोजित परीक्षा के 3 चरण जिसमें प्रारंभिक परीक्षा, लिखित परीक्षा और मौखिक परीक्षा में अंग्रेजी को पूर्णतः स्थापित करते हुए प्रारंभिक परीक्षा में सीसैट पेपर जिसमें गणित, रीजनिंग और अंग्रेजी के अधिकतर सवाल रहते है वहीं लिखित परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को कायम ही रखा और मौखिक परीक्षा में भी अंग्रेजी माध्यम वाले को एकतरफा लाभ पहुंचाया गया और हिन्दी समेत सभी क्षेत्रीय भाषा के विधार्थीयों को रोक दिया गया।
सीसैट पेपर आने से पहले जहां हमारे देश में ग्रामीण क्षेत्र से आये, अभावग्रसत परिवेश में पले-पढ़े मेधावी छात्र यूपीएससी परीक्षा पास करके आईएस, आईपीएस बनते थे, वहीं सीसैट आने के बाद अंग्रेजी इस कदर हावी हुई कि भारत में बड़े- बड़े स्कूलों से पढ़े बच्चे, आईआईटी, मेडीकल के विधार्थीयों ने यूपीएससी में अपनी बहुलता दिखाकर यह साबित कर दिया की सरकार ने उन्हें एकतरफा लाभ पहुंचाने की कसम खा रखी है। अब हमारे देश में ग्रामीण क्षेत्र से गिने- चुने बच्चे भी यूपीएससी के मौखिक परीक्षा तक जाते जाते भेदभाव को सहकर दम तोड़ देते हैं।
1- 2 की संख्या में हिन्दी भाषी छात्रों का यूपीएससी निकालना, निकम्मी सरकार की बेहुदा शिक्षा नीति का संकेत चिन्ह है। सरकार के द्वारा देश के सभी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी को धरोहर के रूप में स्थापित कर दिया गया है और देश की शिक्षा व्यवस्था को ताक पर रखकर इसे अमीरों का शिक्षा बनाकर छोड़ दिया गया है। सरकार जितना बोलने में यकीन रखती है उतना करने में नहीं। खोखली होती जा रही शिक्षा व्यवस्था में न तो कोई सुधार किया गया न ही सभी को समान अवसर के तहत रोजगार दिया गया।
अगर यही हालत रही तो भविष्य में हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं की अस्मिता दम तोड़ देगी और आने वाली पीढ़ियों को इतिहास के विषय में इसे शामिल करके पढ़ाया जायेगा कि हिन्दी एक ऐसी भाषा हुआ करती थी। यह एक चिंता का विषय है। अपनी मातृभाषा को बचाने के लिए हमें संघर्ष करना होगा, तभी हम फिर से सूर, कबीर, खुसरो, रैदास, तुलसी की भाषा के गरिमा को लौटा पायेंगे।
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