हिंदी गद्य साहित्य के सर्वांगीण इतिहास में मुंशी प्रेमचंद का स्थान अग्रगण्य साहित्यकारों में सर्वोपरि है ।
प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से जनसामान्य की समस्याओं और पीड़ाओं को यथार्थ रूप से चित्रित किया । उनकी कथाएं और उपन्यास हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं ।
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1980 को वाराणसी के लमही नामक गांव में हुआ था । उनके पिता मुंशी अजायब राय लमही में डाक मुंशी के पद पर थे । प्रेमचंद जी के माता पिता के संदर्भ में रामविलास शर्मा जी ने कहा है – ” जब वे सात साल के थे , तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया । जब पंद्रह वर्ष के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष के होने पर उनके पिता का भी देहांत हो गया।”
इस संघर्षमय प्रारंभिक जीवन का उनके साहित्य पर समीचीन प्रभाव पड़ा , उनके इन अनुभवों की अत्यंत मार्मिक सच्चाई उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है । उनकी प्रारंभिक शिक्षा फारसी में हुई और अपनी स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत हुए ।
1921 ई. में असहयोग आंदोलन के प्रभाव में आकर उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे कर लेखन को ही अपना स्वधर्म मान लिया। साथ ही उन्होंने विभिन्न पत्रिकाओं जैसे मर्यादा , माधुरी इत्यादि का संपादन किया और सरस्वती प्रेस खरीद ‘हंस’ और ‘जागरण’ नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया । प्रकाशन घाटे में जाने के कारण फिल्म कंपनी में कहानी लेखक के तौर पर कुछ समय तक कार्य किया ,परंतु यह चमक दमक और फिल्मी माहौल उन्हें रास नही आई और वे ये सब त्याग कर पुनः अपने शहर लौट गए । लंबी बीमारी से पीड़ित होने के पश्चात वे कमजोर होते गए। अंततः 8 अक्टूबर 1936 को उनकी मृत्यु हो गयी और इस प्रकार हमने साहित्य की एक अमूल्य धरोहर को खो दिया , परंतु आज भी उनकी रचनाएं कालजयी और प्रासंगिक हैं ।मुंशी प्रेमचन्द हिंदी गद्य साहित्य के वो उदीयमान नक्षत्र हैं जो समयाकाश में तिरोहित होने के पश्चात भी अपनी रचना रूपी किरणों से निरंतर प्रकाशमान हैं ।
आज उनके 141वें जन्मदिवस पर हम सभी साहित्यप्रेमियों को उनकी विरासत को संजोना और उनके मूल्यों को अपने जीवन के आधार में सम्मिलित करना चाहिए और साहित्य के पठन-पाठन में रत हो कर हिंदी के उन्नयन में निरंतर योगदान करते रहना चाहिए।प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में स्वानुभूत कठिनाइयों एवम जीवन के कटु यथार्थ को बखूबी कलमबद्ध किया है जिससे इन रचनाओं से पाठक अनायास ही साधारणीकृत हो जाता है।
मुंशी प्रेमचंद अपने लेखन का आरंभ तो आदर्शवाद की मशाल से करते है समय के प्रवाह के साथ साथ राष्ट्रवादी दृष्टिकोण , तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन , व समाज को जागृत करने की भावना के साथ ही उनके लेखनी में यथार्थ की झलक भी दिखने लगती है जो कि समयानुसार पूर्णतः यथार्थवादी हो जाती है । इस नवीन यथार्थवादी स्वरूप की झलक उनके सुप्रसिद्ध उपन्यास गोदान में होरी की मृत्यु से हो जाती है ।
इससे पूर्व के उपन्यासों में कथा आदर्शवादी पहलू पकड़े हुए अंत की ओर बढ़ती थी जो कि पाठकों को बांधकर रखती थी , परंतु इस बार होरी की मृत्यु में पाठक कृषक जीवन के कटु एवम् मार्मिक सत्य से अवगत हुए । यही कारण था कि यह उपन्यास कालजयी सिद्ध हुआ ।
प्रेमचंद द्वारा कृत इस रचना की प्रासंगिकता अबतक विद्यमान है । देश मे कितने ही ऐसे होरी जैसे किसान है जिनके जीवन का अंत ऐसी छोटी छोटी इच्छाओं की पूर्ति करते करते हो जाती है ,महिलाओं की स्थिति भी ज्यादा बेहतर नही है , धनिया जैसी स्त्री आज भी ग्रामीण जीवन मे उनकी स्थिति वैसे ही दयनीय बनी हुई है ।पूंजीवाद आज भी अपनी जड़ें जमाये हुए है , किसान व छोटे मजदूर आज भी ज़मींदारों के अधीन शोषित होते है , आज़ादी के बाद से अबतक भले ही चेहरे बदले हो , शोषण का स्वरूप बदला हो पर यह अबतक वैसे ही बरकरार है ।
खूब बढ़िया लिखे हो।
प्रेमचंद जी पर लिखने के लिए उनकी जयंती की आवश्यकता बिल्कुल नहीं हैं। केवल कलम की आवश्यकता है “कलम के मज़दूर” पर लिखने के लिए।