कामायनी की प्रासंगिकता

आधुनिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी की प्रासंगिकता

जयशंकर प्रसाद छायावाद चतुष्ट्य के प्रमुख कवि हैं । छायावादी काव्यधारा में उनका अग्रगण्य स्थान माना जाता है । इनका जन्म वाराणसी के प्रसिद्ध वैश्य परिवार “सुंघनी साहू ” के यहां 1889 ई. में हुआ । बाल्यकाल से ही ये काव्य प्रतिभा के धनी थे , तथा अल्पायु से ही काव्य रचना करने लगे थे। इनकी प्रारंभिक रचनाएं ब्रजभाषा में हैं ,परंतु समय के साथ साथ इनकी रचना दृष्टि परिष्कृत एवम परिमार्जित होती गई एवम इसकी परिकल्पना “कामायनी” नामक महाकाव्य के रूप में अपनी पूर्ण गरिमा और सौंदर्य के साथ साकार हुई ।

कामायनी निश्चय ही छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना कही जा सकती है । कामायनी पूर्णतः मानव मन एवम दर्शन से परिपूर्ण काव्य है । इसमें प्रमुख पात्रों को मन ,बुद्धि एवम हृदय का प्रतीक मानते हुए कवि ने मनुष्य के मानसिक अतर्द्वंद एवम मानवता के समस्त सिद्धांतों का सम्यक निदर्शन किया है ।

आधुनिक समय में आज जब मनुष्यता अस्तित्व संबंधी संकट से जूझ रही है ,तो कामायनी का ये संदेश अत्यंत समीचीन जान पड़ता है –

औरों को हंसते देखो मनु
हंसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तृत कर लो
और सबको सुखी बनाओ

आज इस कोरोना काल में हम सब जिन भयावह परिस्थितियों का सामना कर रहें है , इनमें कामायनी में प्रसाद जी द्वारा प्रतिपादित मानवता एवम समरसता के सिद्धातों को पुनः स्मरण करने की आवश्यकता है , प्रसाद जी के अनुसार –

नित्य समरसता का अधिकार
उमड़ता कारण जलधि समान
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुख मणि गण द्युतिमान

कामायनी की वास्तविक प्रासंगिकता इन्हीं अर्थों में निहित है । प्रसाद जी की यह रचना वस्तुतः मानवता का मूर्त रुप कही जा सकती है । आज प्रसाद जी के शब्दों में हम यही मंगलकामना कर सकते है कि मानव धर्म एवम समरसता का पालन करते हुए हम सब निरंतर उन्नति को प्राप्त हों –

डरो मत अरे अमृत संतान
अग्रसर है मंगलमय वृद्धि
पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र
खिंची आयेगी सकल समृद्धि

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