“तसव्वुर”

यकीं करोगी…? कहो…यकीं करोगी…?
गर कहूँ…ये तुम ही हो…

लबों पर गुलों के शबनम सी चमकती
ख़ुशगवार हवाओं में चिड़ियों सी चहकती
पहली बारिश में सौंधी मिट्टी सी महकती
आसमां में हुस्न-ए-महताब सी दमकती…ये तुम ही हो

आँगन में सावन की बूँदों सी छनकती
मुंडेरों पर छत की चाँदनी सी सरकती
वीरां रेगिस्तान में मृगतृष्णा सी बहकती
मैं व्याकुल मृग सा, और तृष्णा सी थिरकती…ये तुम ही हो

सर्द हवाओं में अलाव सी दहकती
भरी दुपहरी सुकूँ की बर्फ़ बन बरसती
समुंदर में दिल के, बेख़ौफ़ नदी सी सिमटती
भीगी जुल्फों को यूँ सादगी से झटकती…ये तुम ही हो

कोरे पन्नों पर आज़ाद रंगों सी टपकती
मासूम परी सी मेरे ख्यालों में मटकती
कभी बेहद सौम्य, कभी बारुद सी भड़कती
बेचैन साँसों में नन्हीं हिचकियों सी अटकती…ये तुम ही हो

दामन में लम्हों के सुनहरी यादों सी लिपटती
कभी उतावली सी, कभी बेवज़ह हिचकती
खामोशियों के बीच मख़मली आवाज़ सी उमगती
घूमता मैं काफ़िर सा और अजां सी खनकती…ये तुम ही हो

बनकर अल्फ़ाज़, ख्यालों में “तसव्वुर” सी झलकती
ये तुम ही हो…ये तुम ही हो
यकीं मानों…ये तुम ही हो

– ©’सरल’

About The Author(s)

Share Your Voice

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *