*मैं अभी हारा नहीं और तू अभी जीता नही*
तू तंज़ सी ज़ुबां लिए उस ज़ख्म को कुरेदता
अंजाम से मेहरूफ तू ,आमाल से अनजान था
जो ना दिखा वो नाम था आंख को जला रहा
था साथ मेरी जीत में फिर आज क्यों रुला रहा
वह सर्द रात याद है
और रात की तन्हाई भी
सब चैन से थे सो रहे
मैं बेसब्र सा कुछ लिख रहा
उस धूप को ना भूलियो
जब छांओं को तू ढूंढता
मैं रात से फिर हार कर
जंग-ए-सहर को जा रहा
और तंज़ सी ज़ुबां लिए
मेरे किऐ पे हस रहा
मैं रौशनी हूंँ रात की
बेजान सा नाचीज़ तू
और हो सके तो याद रख
कि
रात, मैं अभी हारा नहीं
और
धूप, तू अभी जीता नहीं