पीड़ित, मजबूर और गरीब किसान की आवाज़ भले ही अवरुद्ध हो जाए भ्रष्ट आवाज़ों के शोर में, परंतु उसकी थकी हुई आंखें उनकी दुर्दशा की तस्वीर दिखलाकर सदैव ही हमें भयभीत करती आयी हैं और करती रहेंगी।
वो आंखें
भोजन से लदी, मेरे सामने सजी थाल की सतह से
झांकती हैं वो आंखें,
जिन्होंने देखा है एक बीज को भोज्य फसल बनते हुए,
अपने हक का हर इक दाना मुठ्ठी से छिनते हुए।
झुर्रियों से घिरी हुई वो आंखें
पूछती हैं हिसाब,
मौसम की बेदर्दी का,
भुकमरी लाने वाली बिना वर्षा की गर्मी का,
फसल को खा जाने वाली प्रचंड सर्दी का।
वो आंखें,
छलकाती हैं अन्नदाताओं के खाली पेट की लाचारी
कर्ज़ के तले दबकर, फंदे को गले लगाने की उनकी मजबूरी।
वो आंखें,
नहीं जानती भ्रष्ट तंत्र के मंत्रों को,
वह तो बस अपनी अमूल्य मेहनत का सही मूल्य मांगती हैं।
हर घर की रसोई को कर उजागर,
अपनों को भी भर पेट खिलाना चाहती हैं।
वो आंखें,
सभी को भोजन का थाल सजाकर देने वाले
कृषक के बुरे हालात बतलाती हैं।
इंसाफ़ के लिए रात दिन गुहार लगती हैं।
वो आंखे,
कृषक के बुरे हालात बतलाती हैं।