शक्ति की उपासना और स्त्री।
नवरात्र के नौ दिवसीय आयोजन में हम देवी की उपासना विभिन्न रूपों में करते हैं। देवी के प्रथम रूप शैलपुत्री से लेकर नौवें रूप सिद्धरात्रि तक की उपासना हमारे आधात्यमिक,धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना को प्रबल करता है,बल देता है। शक्ति की उपासना कब और कैसे शुरू हुई इस विषय पर इतिहासकारों और विद्वानों में मतभेद है। ज्यादातर लोग शक्ति पूजा की परम्परा की शुरूआत ‘देवी भागवत पुराण’ की रचना के बाद मानते हैं।
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हिन्दू धर्म में विष्णु की उपासना करने वाले को वैष्णव, शिव की उपासना करने वाले को शैव और शक्ति की उपासना करने वाले को शाक्त कहा जाता है। एक तरफ वैष्णव और शैव पुरूष को सृष्टि का प्रधान निर्माता मानते हैं वहीं दूसरी तरफ शाक्त सम्भवतः दुनियां का एकमात्र ऐसा धर्म है जो देवी को ईश्वर के रूप में पूजता है। जिस देवी की उपासना हम धर्म और कर्मकाण्ड के अनुसार करते हैं वही देवी प्रतीकात्मक रूप में हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।
स्त्री माँ,बहन,पत्नी और प्रिया के रूप में ममता,करूणा, प्रेम की प्रतीक है प्रश्न यह उठता है कि व्यवहारिक रूप में उपस्थित स्त्री को हम किस नजरिए से देखते हैं। स्त्री को सृजन का आधार मानते हैं या भोग-विलास की वस्तु, स्त्री हमारे लिए श्रद्धेय है या अपेक्षित। अगर हम सिर्फ देवी की उपासना काल्पनिक मूर्ति के रूप में करेंगे और जीवित देवीयों का तिरस्कार करेंगे तो इस कर्मकांड का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाएगा।
देवी की उपासना और अराधना सच्चे अर्थों में तभी सार्थक होगी जब हमारा समाज अमानवीय रूढ़िवादी मानसिकता, स्त्री के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को त्यागकर नये मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपनाएगा। हमें भ्रूण हत्या, बलात्कार, लैंगिक भेदभाव, शारीरिक और मानसिक शोषण जैसे तमाम कुरीतियों पर प्रहार करके नये सिरे से अपनी सोच को विकसित करना होगा।
आप सभी को शक्ति की अराधना और उपासना वाली नौ दिवसीय नवरात्रि की शुभकामनाएं, इस उम्मीद के साथ कि स्त्री शक्ति की उपासना धार्मिक आधार के साथ-साथ अपने व्यवहारिक,सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में भी करें।
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