संगिनी

संगिनी

पीह में तोरी संगिनी, रँगी जो तोरे रंग में
प्रीत न मोरी तुझ बिन,कोई और न मोरे मन मे
कहत है जगत मोहे, कुलटा मैं समाज में
कोई गैर की परवाह न मुझे,मोरे पीह जी की आस मे।.
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पीह तू है कहाँ, तुझ बिन तमस है यें जहां
अकेली खड़ी मैं द्वारे,तोरे इंतजार में यहां
श्वेत वस्त्र न मुझ भाए,न राग विरह का
मैं तो कमली मोरे पीह की,बन जाऊं उसका तमगा।
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लोग कहे मुझे बावरी,मैं तो पीह की संगिनी
समझा-बुझा के थक गए, न प्रीत मोरी छुटनी
पीह तू लौट आ,लेजा मुझे भी अपने संग में
मै चौ दिशा में मुख खड़ी,इक तोरे ही दर्श में।
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हरि सम्मुख होकर मैं,उलाहने उन्हें देती
मोहे पीह जी को भेज दो,बुलावे में देती
मोरी विरह-वेदना को,न जाने हरि क्यों न समझता
कदाचित राधा उसको न मिली वास्ते मुझे सताता।
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पीह में तोरी संगिनी, रँगी जो तोरे रंग में
प्रीत न मोरी तुझ बिन,कोई और न मोरे मन में…………..।

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