हिन्दी साहित्य का बदलता हुआ स्वरूप !

हिन्दी साहित्य के लगभग ग्यारह बारह सौ वर्षों के इतिहास में भारतीय समाज ने कई रंग बदले। यह बदलाव भावनाओं, विचारों, रहन-सहन के स्तर, लोक-व्यवहार, सामाजिक बनावट और सोच के स्तर के साथ ही साथ बदलते राजनीतिक ढ़ाँचे, भौतिक विकास तथा वैश्विक आदान-प्रदान के कारण हुआ।

इन परिवर्तनों का प्रभाव भारतीय-जीवन की दिशा और दशा को कितना और किस प्रकार प्रभावित किया है, इसको केवल समय-समय पर बदलते हुए हिन्दी साहित्य के स्वरूप को देखकर समझा जा सकता है।

हिंदी दिवस
https://www.jagranimages.com/images/newimg/13092021/13_09_2021-12_09_2021-hindi_diwas_22013213_22016546.jpg

हिन्दी साहित्य के इतिहास का आदिकाल सिद्ध- नाथ सम्प्रदाय के साधुओं की रचनाओं से आरम्भ होकर वीरगाथा काल के गलियारों से गुजरते हुए जैन मुनियों की रचनाओं की परम्परा का स्पर्श किया। अमीर खुसरो और मैथिल कोकिल विद्यापति की रचनाएँ भी इसी काल के गौरव हैं। इन कवियों के समय का समाज इनकी रचनाओं में प्रतिबिम्बत हैं। इसी प्रकार भक्तिकाल की लगभग चार सौ वर्षों की सुदीर्घ परम्परा का काल भी राजाओं का ही काल था, इस युग के साहित्य को कबीर,सूर,तुलसी और जायसी के अलावा अन्य साधु-सन्तों ने प्रमुखता से प्रभावित किया। ये संत दरबारी नहीं थे और इन्होंने स्वानतः सुखाय लोकोपकारी, लोकरंजक और लोक रक्षक साहित्य का निर्माण किया।

इनकी रचनाओं में भी इनके समकालीन समाज का स्पष्ट चित्रण मिलता है। पुनः रीतिकाल की दो प्रमुख धाराओं में एकतरफ रीतिबद्ध राजाश्रित कवियों की रचनाएँ हैं तो दूसरी तरफ रीतिमुक्त स्वतंत्र कवियों की रचनाएँ। यद्यपि भाव और भाषा-शैली तथा जहाँ तक छंदों और अलंकारों की विविधता की बात है, दोनों में उपलब्ध है लेकिन रचनाओं में व्यक्त भावों के स्तर में स्पष्ट अन्तर दिखायी देता है। इनकी रचनाओं में भी समाज का स्वरूप भी बड़ा ही स्पष्ट है।

रीतिकाल के बाद 19वीं शताब्दी के आधुनिक काल की बात करें तो इसका भी लगभग 200 वर्षों का काल उपनिवेशवाद का था। मध्यकाल को जहाँ मुगल संस्कृति ने चाहकर भी समाज को बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर सका वहीं अंग्रेजों ने मात्र 200 वर्षों के शासन-काल में भारतीयता को इतना अधिक प्रभावित किया कि हिन्दी साहित्य का स्वरूप ही बदल दिया है।

आधुनिक काल को गद्य- काल भी कहा गया क्योकिं इस काल में कविताएँ गौण हो गयी हैं। हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर रीति काल के लगभग 750 वर्षों के इतिहास में काव्य का ही बोलबाला था। इसी काल में ऐसी ऐसी रचनाएँ हुई है जिसकी बराबरी युरोप या विश्व का कोई भी देश कभी नहीं कर सकता। सेक्सपीयर से महाकवि कालिदास की तुलना करनेवाले लोग कालिदास के काव्य अथवा नाटकों के मर्म और रसात्मकता से निरे अनभिज्ञ हैं। कालिदास की तुलना वास्तव में विश्व के किसी कवि से नहीं की जा सकती और न तो सूर और तुलसी की श्रेणी का कोई कवि विश्व में कभी रहा हो। इन लोगों की रचनाएँ सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। ये दोनों चीजें किसी भी साहित्यकार के अद्वितीय होने की अनिवार्य शर्तें हैं।

जिन युरोपियनों ने भारत के साहित्य का अध्ययन किया ( जैसे मैक्समूलर,कामिल बुल्के ) इन लोगों ने इस तथ्य को श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया है लेकिन हमारे ही देश के आधुनिक कवि, नवगीतकार जैसे अज्ञेय खेमें के लोग आत्मश्लाभा के कारण अपनी भूतकालिन महान काव्य परंपरा की उपेक्षा करते हैं। इनके पाठक और श्रोता भी बदले हुए परिवेश में इन्हें पसन्द करते हैं। आज के पढ़े-लिखे समाज के लोगों को महाकाव्यों के रसानन्द की न तो जरूरत है और न फुर्सत है, इसलिए क्षणिकाओं से इनका काम चल जाता है।

आधुनिक काल गद्य काल है इसलिए भावनाएँ गौण हो गयी है और विचारशीलता बढ़ गयी है। इसलिए कविता गौण हो गयी है और गद्य प्रधान हो गया। गद्यों में खूब कलाबाजियाँ हो रही हैं इसलिए काव्य का रस, छंद और अलंकार मौन हो गया। विश्वविद्यालय के पाठयक्रमों से भी अब धीरे-धीरे इसका अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। भाषा-विज्ञान का महत्व बढ़ रहा है साथ ही प्रयोजमूलक हिन्दी की भी।

अब तो साहित्यिक हिन्दी और प्रयोजमूलक हिन्दी के भेद को स्पष्ट किया जा रहा है और जीविका के लिए प्रयोजमूलक हिन्दी को साहित्यिक हिन्दी से बचने की सलाह दी जा रही है और लोग अब साहित्यिक हिन्दी के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। भाषा बदलते जा रही है। विधाएँ बदलती जा रही हैं और हिन्दी भाषा का प्रयोजन बदलता जा रहा है। जब मैं प्रयोजमूलक हिन्दी शब्द सुनता हूँ तो मन में विचार आता है कि जो प्रयोजन बदला है, क्या सोच में साहित्य गौण हो गया है ?

कामकाजी हिन्दी ज्ञान भी जरूरी है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि समाज का नवयुवक इस हवा में साहित्य से विरत हो जाए क्योंकि साहित्य पढ़ने से अधिकतम सुख- सुविधा वाले भौतिक क्षेत्र में उन्हें अवसर नहीं मिलेंगे। अगर आज यू.पी.एस.सी या अन्य राज्य सिविल सेवा की प्रतियोगी परीक्षाओं के सिलेबस और इसके मौखिक इन्टरव्यू को देखा जाए तो इसमें भी भाषा के टेकनिकल पक्ष पर अधिक जोर दिया जाता है। काव्य गौण और गद्य प्रधान है।

हिन्दी साहित्य

साहित्य के मामले में आज के भारत और खासकर हिन्दी भाषी लोगों की सोच ही एकदम बदल गयी है। अब कोई महाकाव्य और खण्ड-काव्य लिखने की नहीं सोचता। आज के तथाकथित कवियों को भारतीय काव्यशास्त्र की कोई समझ नहीं क्योंकि इनकी कविताओं में इसकी कोई जरूरत ही नहीं होती।

छंदों में कविता लिखना तो दूर की बात है अब तो केवल लय या तुकबंदी और अधिक से अधिक गीत और गजल की भेदयी से ही काम चला लिया जाता है। महाकाव्य और खंडकाव्य समर्थवान महाकवियों के अलावा दूसरों के बूते की बात भी नहीं है। आज के कवियों में इस प्रकार की प्रतिभा नदारद है। आगर वे ऐसा करें भी तो समाज और परिवेश इतना बदल गया है कि इनका क्षेत्र सिकुड़ जाएगा और उपेक्षित ही रहेंगे। जिस विद्या से धन और मान न मिले वह किस काम की।

दर्शनशास्त्र, साहित्य आदि पढ़ने वाले छात्रों की संख्या दिन- प्रतिदिन घटती जा रही है। हलांकि प्रतियोगी परीक्षाओं में ये विषय हैं लेकिन इसके छात्र कम ही सफलता हासिल कर पाते हैं। विज्ञान, गणित और अभियंत्रण के छात्रों को इसमें अपेक्षाकृत अधिक सफलता मिलती है क्योकिं परीक्षकों की मनोवृतियाँ इनके अनुकूल होती हैं। मुझे तब उम्मीद की किरण दिखायी देती है जब कभी हिन्दी के छात्र भी ऐसी परीक्षाओं में सफल हो जाते हैं। इनके सिलेबेस को देखने से लगता है कि बेचारे ने भाषा विज्ञान और नव-रचनाओं पर ही अधिक माथापच्ची की होगी। परम्परागत काव्य और काव्यशास्त्र आदि की जानकारी इन्हें नाममात्र की ही होगी।

मुझे तो तब आश्चर्य होता है जब विज्ञान-विषय से स्नातक की उपाधि वाले छात्र भी हिन्दी साहित्य को लेकर सिविल सेवा की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाते हैं। ये छात्र आवश्य ही प्रतिभावान होते हैं लेकिन वास्तव में सिलेबस का टेकनिक इन्हें सफलता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चूंकि आजकल इन परीक्षाओं के प्रश्न भी आधुनिक काल की हिन्दी साहित्य के ज्ञान तक ही सीमित है। कहीं कहीं भक्तिकाल और रीतिकाल की थोड़ी बहुत छटा अवश्य है।

इस तरह के ब्लॉग को पढ़ने के लिए : https://unvoicedmedia.in/indian-classical-literature/

About The Author(s)

Tejanshu Kumar Jha
Share Your Voice

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *