‘वैद्य नाथ मिश्र’ जिन्हें हम बाबा नागार्जुन के नाम से भी जानते हैं | 30 जून 1911 में बिहार के दरभंगा जिला में जन्में मैथली भाषा के महान कवि और उपन्यासकार हुए जिन्होंने अनेक जन-जीवन के समस्याओं को उजागर किया | इन्होंने प्रकृति, किसानों कि समस्या, और अन्य लोगों के संघर्षों पर खूब लिखा | वे एक जगह टिककर नहीं रहते थे और शायद इसलिए भारत के विभिन्न समस्याओं को जो वे कागज़ पर उतारते थे उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्होंने इन समस्याओं को बहुत नज़दीक से देखा और समझा है | इसी घुमंतू व्यक्तित्व के कारण वैद्य नाथ मिश्र “यात्री” के नाम से भी प्रसिद्ध हुए |
बाबा नागार्जुन के संबंध में सुप्रसिद्ध आलोचक , समीक्षक डॉ. नामवर सिंह की प्रसिद्ध उक्ति है –" नागार्जुन विरोध और विद्रोह के कवि है इनकी काव्य भूमि अत्यंत विपुल है और विषम भी। इन्होंने रिक्शा खींचने वाले से लेकर पारंपरिक कविताओं के नए प्रतिमान रचने में अपनी काव्य भूमि तैयार की है।" नागार्जुन सच्चे अर्थों में स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि जातीय कवि है।
प्रगतिशील काव्यधारा के ऐसे कवि जिन्होंने समाज के वंचित, उपेक्षित और हाशिए पर ला दिए मनुष्य समाज का वह चित्रण किया जिसके फलस्वरूप नागार्जुन प्रगतिशील काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि कहलाते है। समाज के दूसरे वर्ग के प्रति जिन्हें स्वर प्रदान करने में साहित्य राशि और साहित्य का जहां संकोच करते थे नागार्जुन इस वर्ग के चिरंतन और प्रतिनिधि कवि है ।
इनके जीवन में अकाल और उसके बाद की स्थिति सदैव बनी रही। अकाल और उसके बाद कविता भी अकाल जैसे प्रकोप के प्रति सीमित जीवन दर्शन और काव्यभूमि की प्रस्तावित रूपरेखा और इनका आंदोलन कविताओं में अधिक से अधिक सामान्य वर्ग को प्रतिनिधित्व देने को रहा, प्रसिद्ध होने के ठीक विपरीत नागार्जुन समाज की दिखाई पड़ने वाली दरारों को शब्दों की विशिष्ट रोशनी से देखने के लिए प्रतिबद्ध है।
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जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊ,
जनकवि हूँ मैं, साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं’
आज उनके जन्म दिवस पर उनकी कुछ रचनाओं को हम आपके साथ साझा कर रहें हैं |
उनको प्रणाम !
जो नहीं हो सके पूर्ण–काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम । कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट जिनके अभिमंत्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम ! जो छोटी–सी नैया लेकर उतरे करने को उदधि–पार; मन की मन में ही रही¸ स्वयं हो गए उसी में निराकार ! उनको प्रणाम ! जो उच्च शिखर की ओर बढ़े रह–रह नव–नव उत्साह भरे; पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि कुछ असफल ही नीचे उतरे ! उनको प्रणाम ! एकाकी और अकिंचन हो जो भू–परिक्रमा को निकले; हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके इतने अदृष्ट के दाव चले ! उनको प्रणाम ! कृत–कृत नहीं जो हो पाए; प्रत्युत फाँसी पर गए झूल कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी यह दुनिया जिनको गई भूल ! उनको प्रणाम ! थी उम्र साधना, पर जिनका जीवन नाटक दु:खांत हुआ; या जन्म–काल में सिंह लग्न पर कुसमय ही देहांत हुआ ! उनको प्रणाम ! दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ? पर निरवधि बंदी जीवन ने जिनकी धुन का कर दिया अंत ! उनको प्रणाम ! जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर–चूर ! उनको प्रणाम !
इन्दु जी क्या हुआ आपको
क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको? सत्ता की मस्ती में भूल गई बाप को? इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको? बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को! क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको? आपकी चाल-ढाल देख- देख लोग हैं दंग हकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग सच-सच बताओ भी क्या हुआ आपको यों भला भूल गईं बाप को! छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको काले चिकने माल का मस्का लगा आपको किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको अन्ट-शन्ट बक रही जनून में शासन का नशा घुला ख़ून में फूल से भी हल्का समझ लिया आपने हत्या के पाप को इन्दु जी, क्या हुआ आपको बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को! बचपन में गांधी के पास रहीं तरुणाई में टैगोर के पास रहीं अब क्यों उलट दिया ‘संगत’ की छाप को? क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको बेटे को याद रखा, भूल गई बाप को इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी… रानी महारानी आप नवाबों की नानी आप नफ़ाख़ोर सेठों की अपनी सगी माई आप काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप सुन रहीं गिन रहीं गिन रहीं सुन रहीं सुन रहीं सुन रहीं गिन रहीं गिन रहीं हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को एक-एक टाप को, एक-एक टाप को सुन रहीं गिन रहीं एक-एक टाप को हिटलर के घोड़े की, हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को… छात्रों के ख़ून का नशा चढ़ा आपको यही हुआ आपको यही हुआ आपको
अकाल और उसके बाद
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त। दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
जी हाँ , लिख रहा हूँ
जी हाँ, लिख रहा हूँ … बहुत कुछ ! बहोत बहोत !! ढेर ढेर सा लिख रहा हूँ ! मगर , आप उसे पढ़ नहीं पाओगे … देख नहीं सकोगे उसे आप ! दरअसल बात यह है कि इन दिनों अपनी लिखावट आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की तरह वो अगले ही क्षण गुम हो जाती हैं चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो बस दो-चार सेकेंड तक ही टिकती है …. कभी-कभार ही अपनी इस लिखावट को कागज़ पर नोट कर पता हूँ स्पन्दनशील संवेदन की क्षण-भंगुर लड़ियाँ सहेजकर उन्हें और तक पहुँचाना ! बाप रे , कितना मुश्किल है ! आप तो 'फोर-फिगर' मासिक - वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे, मन-ही-मन तो हसोंगे ही, की भला यह भी कोई काम हुआ , की अनाप- शनाप ख़यालों की महीन लफ्फाजी ही करता चले कोई - यह भी कोई काम हुआ भला !
कालिदास
कालिदास! सच-सच बतलाना इन्दुमती के मृत्युशोक से अज रोया या तुम रोये थे? कालिदास! सच-सच बतलाना! शिवजी की तीसरी आँख से निकली हुई महाज्वाला में घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम कामदेव जब भस्म हो गया रति का क्रंदन सुन आँसू से तुमने ही तो दृग धोये थे कालिदास! सच-सच बतलाना रति रोयी या तुम रोये थे? वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका प्रथम दिवस आषाढ़ मास का देख गगन में श्याम घन-घटा विधुर यक्ष का मन जब उचटा खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर चित्रकूट से सुभग शिखर पर उस बेचारे ने भेजा था जिनके ही द्वारा संदेशा उन पुष्करावर्त मेघों का साथी बनकर उड़ने वाले कालिदास! सच-सच बतलाना पर पीड़ा से पूर-पूर हो थक-थककर औ’ चूर-चूर हो अमल-धवल गिरि के शिखरों पर प्रियवर! तुम कब तक सोये थे? रोया यक्ष कि तुम रोये थे! कालिदास! सच-सच बतलाना!
शासन की बंदूक
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
बाबा नागार्जुन देश, जनता और धरती के कवि है, देश –धरती और जनता ये तीनों कवि के यहां अमूर्त न होकर साकार रूप से विवेचित हुए हैं।
About The Author(s)
मेरा नाम अविरल अभिलाष मिश्र है।
मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी (सांध्य) कॉलेज से स्नातक किया है, वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस से परास्नातक कर रहा हूं।
नीलंबरा (कॉलेज मैगज़ीन) का संपादक भी रहा हूं।
इस समय साऊथ कैंपस हिंदी विभाग का छात्र प्रतिनिधि हूं तथा अनवॉइस्ड मीडिया के हिंदी संपादक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा हूं।
सादर!!