सब्त हैं बदन पर नक़श ए बेवफाई

सब्त हैं बदन पर नक़श ए बेवफाई
वह कै़द-ए-शहर-ए-इंसाँँ से मांगता रिहाई

मोहब्बत रिफाक़त इनसानियत ये क्या हैं
इंसान ने इंसान से है नफरत कमाई

एक बेनाम भूखी भीड़, एक मासूम निवाला
किसने ये सड़क पर मौत की नुमाइश है लगाइ

चल गया है जादू मदारी के डमरू का
बंदर खड़ा देख रहा लुटती उसकी कमाई

ये कौन सी जगह है, कहाँ हैं बशर के निशाँ
ये कौन हैं, ज़मीं पर नहीं बनती इनकी परछाई

कहीं क़हत के मंज़र, कहीं सरगर्म कारखाने
कहीं शाही दावतें, कहीं इक निवाले पर बन आई

तोते की रट है और भेेेड़ की चाल
इन जनाब ने क्या ख़ूब है अपनी तस्वीर बनाई

आज़ाद नहीं ख़ुद के ही कै़द से ग़ुलाम
और मांगते फिरते हो दुनिया से रिहाई

©ग़ुलाम यज़दानी

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