हिंदी लिपि की उत्पत्ति के विषय में सैंधव लिपि का योगदान––
भारत में उपलब्ध प्राचीन लिपियों में सैंधव लिपि को सबसे प्राचीन लिपि माना गया है। सैंधव शब्द सिंधु घाटी की सभ्यता को अभिव्यक्त करता है अतः प्राचीन लिपियों में सर्वाधिक प्राचीन लिपि सिंधु घाटी की “सैंधव लिपि” को हम मान सकते हैं।
भारतीय लिपि का सैंधव लिपि की उत्पत्ति अधिकांशत: हड़प्पा और मोहनजोदड़ो इनसे जोड़कर ही देखने के पक्षपाती हैं। विदेशी विद्वान भ्रांत अवशेषों के आधार पर प्राचीन लिपियों में भ्रांति पूर्वक यह धारणा फैलाते हैं, कि "सैंधव लिपि" प्राचीन लिपि नहीं है। उन्होंने अधिकांश लेख प्रकाशित करके यह सिद्ध किया कि भारत की प्राचीन लिपि सैंधव नहीं है। आज भी सैंधव पर बात की जाती है, तो यही विद्वान भारतीय संस्कृति, इतिहास, भारतीय साहित्य व लिपि पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। भारतीय विद्वानों में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी इन विदेशी विद्वानों द्वारा कपोल कल्पित विचारधाराओं को तर्क के आधार पर खंडित करते हैं।
- लिपि के विषय में पुनर्मूल्यांकन करते हुए डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने आर्यों व सभ्यता के विषय में जब लेख प्रकाशित किया, तो यह सिद्ध हो गया कि तत्कालीन लिपि कितनी प्रमाणिक है वह जीवन के लिए कितनी जरूरी है।
- सिंधु घाटी की सभ्यता और उससे उत्पन्न सैंधव लिपि को प्राचीन लिपि मानने में भारतीय विद्वान सहमत हैं। ग्रंथों में 2 जिन प्रमुख नगरों हड़प्पा एवम् मोहनजोदड़ो का उल्लेख मिलता है, वह वस्तुतः अनेक खोजों के बाद इतिहासकारों द्वारा सिद्ध किया गया। हड़प्पा पंजाब के मौनगोमरी जिले में हैं, और मोहनजोदड़ो सिंध प्रांत के ललकाना जिले में है।
हड़प्पा की सर्वप्रथम खोज मेसन में 1820 ई. में की। 1853 में इस स्थान का अध्ययन किया गया और कनिंघम ने इसे विस्तारपूर्वक अध्ययन का क्षेत्र बनाया। इन दोनों विद्वानों ने सिंधु घाटी की सभ्यता को सामने लाने का प्रयास किया। राखलदास बनर्जी ने 1920 ई. में इन्हीं शोधकर्ताओं के आधार पर अपना शोध कार्य किया। उसी समय 1920 में ही सर जॉन मार्शल के निर्देशन में इन दोनों स्थानों की खुदाई का कार्य शुरू किया गया। इसके बाद भारतीय विद्वान डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने जो प्रदर्शित किए उन्हें सभी विद्वान मानते हैं और स्वीकार करते हैं।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के शब्दों में–– “हैरानी होती है, एक से अधिक मंजिलें वाले घर, ईटों से बने सुनियोजित घर, भूगर्भ के अंदर पानी आदि जाने की व्यवस्था, पक्की नालियां, सामाजिक जीवन को चलाने वाले मुख्य साधन अर्थात अत्यंत उच्च और विकसित सभ्यता हमें सिंध प्रांत के मोहनजोदड़ो और अन्य स्थानों तथा दक्षिण पंजाब के हड़प्पा क्षेत्र में दिखलाई पड़ी, उस सभ्यता ने विश्व के विद्वानों को आश्चर्यचकित कर दिया। जब यह बात सामने आई कि यह सभ्यता वैदिक सभ्यता के पूर्व की सभ्यता है जो वैदिक आर्यों के आने से पूर्व के आर्यों द्वारा स्थापित है, तो सभी विद्वानों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।।”
ब्राह्मी लिपि:– प्राय: सभी इतिहासकारों और लिपि आविष्कर्ताओं ने माना है, कि ईसा पूर्व पांचवीं सदी से लगभग 350 ईसा पूर्व तक प्राप्त होने वाली भारतीय शिलालेख उस लिपि का नाम ब्राह्मी है।जो बाएं से दाएं की ओर लिखी गई है। इस लिपि के संबंध में इतिहासकारों ने यह प्रमाणिक तथ्य भी उल्लेख करते हैं, कि ब्राह्मी लिपि भारत की सर्वाधिक प्राचीन वह लिपि है, जो शिलालेखों पर खोदी गई है, अथवा प्राप्त हुई है, सभी प्राचीन शिलालेख और अधिकांश में 3वीं शताब्दी के आसपास के हैं।
लिपि विशेषज्ञ दो विशेष लिपियों की चर्चा करते हैं––
१. ब्राह्मी लिपि और
२. खरोष्ठी लिपि
इन दोनों के संबंध में हमें इतिहास में जाना पड़ता है, यूरोपियन विद्वान ब्राह्मी के लिए पाली, साउथ अशोक इन दो शब्दों का उल्लेख करते हैं, जबकि भारतीय विद्वान यह सिद्ध करते हैं कि यह दोनों अति महत्वपूर्ण लिपियाँ हैं। भले ही इसके स्रोत के समय हम अभी तक प्रमाणिक मत नहीं बना सकते। धारणाएं प्रमाणिक होने के लिए स्रोतों के अधीन होने चाहिए। पाश्चात्य विद्वान धारणाओं को ही प्रमाण सिद्ध करने के लिए ब्राह्मी को विदेशी लिपि से जोड़ने का संकल्प और प्रयास दोहराते हैं। जबकि प्रमाणिक धारणा है कि ब्राह्मी लिपि आधुनिक लिपियों की जन्मदाता है।
ब्राह्मी के विषय में भारतीय मान्यताएं एवं विदेशी मान्यताएं–– ब्राह्मी लिपि के विषय में ऐतिहासिक शिलालेख यह सिद्ध करते हैं कि यह लिपि प्राचीन होने के साथ-साथ आधुनिक देवनागरी लिपि की जन्मदाता है– किंतु पाश्चात्य विद्वान इस लिपि के विषय में अपवाद स्वरूप कुछ तथ्य प्रस्तुत करते हैं–– ब्राह्मी के विषय में विदेशी मान्यताएं– इस लिपि को भारतीय लिपि ना मानने वाले विद्वानों में आलोचक गूलर का नाम सर्वप्रमुख है। वे इसका संबंध दो विदेशी लिपियों से जोड़ते हैं– ग्रीक लिपि और सामी लिपि। गूलर महोदय के साथ-साथ अन्य विद्वान भी इनके मत को निर्णायक मत मानते हैं। यह धारणा समर्थन और खंडन की क्रिया में अपने तर्क और मत प्रस्तुत करते हैं। ब्राह्मी लिपि, सामी लिपि से संबंधित है क्योंकि ब्राह्मी की उत्पत्ति सामी लिपि से इसलिए है क्योंकि वर्ण और चिन्ह दोनों समान है। दूसरा तर्क यह है सामी लिपि के समान ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। अंतिम धारणा यह है कि ग्रीक लिपि की कुछ विशेषताएं ब्राह्मी लिपि में पाई जाती हैं। प्राय: दाएं से बाएं लिखा होना एक संयोग मात्र ही है। ब्राह्मी के विषय में भारतीय मत– पाश्चात्य विद्वानों के विरोध में भारतीय मत इसे वैदिक उत्पत्ति मानता है। पहला तर्क ब्राह्मी लिपि मूलत: द्रविड़ों की लिपि है। आर्यों ने द्रविड़ सभ्यता और संस्कृति की अनेक वस्तुओं के साथ-साथ इस लिपि को ग्रहण किया। दूसरा तर्क ब्राह्मी लिपि के सबसे प्राचीनतम प्रमाण उत्तर भारत से प्राप्त हुए। सबसे प्रमाणिक तर्क, तथ्य और अभिमत की जब वैदिक संस्कृति की स्थापना, वैदिक सभ्यता की स्थापना के प्रमाण हम विश्वासपूर्वक मानते हैं तो ब्राह्मी लिपि को वैदिक उत्पत्ति से क्यों नहीं ग्रहण कर सकते। अंतिम अभिमत ब्राह्मी लिपि चाहे विदेशी अभिमत के अनुसार विदेशी लिपि से समानता रखती है किंतु संयोग को आधार नहीं माना जा सकता।।
खरोष्ठी लिपि:– ब्राह्मी के उपरांत भारतीय लिपियों में खरोष्ठी लिपि दूसरी प्रसिद्ध लिपि है यह लिपि अभिलेखों और शिलालेखों में प्राप्त होती है। अनुसंधान के कार्यों से सम्राट अशोक के कार्यकाल में भी इस लिपि का और इसके संकेत प्राप्त होने के कुछ अवशेष मिलते हैं। ब्राह्मी लिपि के समान खरोष्ठी लिपि भी परिभाषा और नाम के साथ संदेह को लेकर प्रस्तुत होती है।
खरोष्ठी लिपि अनेक अपवादों के साथ कुछ इस प्रकार है–– खरोष्ठी नामक आचार्य के नाम पर इस लिपि का नामकरण किया गया। खर– पृष्ठि के नाम से भी इसको खरोष्ठी नाम दिया गया। गधे के ओठ के आकार पर सिद्ध होने के कारण इसे खरोष्ठी नाम मिला।
खरोष्ठ नामक किसी आचार्य के नाम पर इस लिपि का संबंध जोड़ा गया। पाश्चात्य विद्वान इसे तीन महत्वपूर्ण नामों से जोड़ते हैं–
- उत्तरी अशोक
- गांधार और
- काबुलियन
भारतवर्ष के उत्तरी– पश्चिमी सीमांत के अंतर्गत कुछ मौर्यवंशी लेखों से इसका संबंध जोड़ा गया । इन अनेक नामों के साथ ब्राह्मी लिपि के समान खरोष्ठी लिपि भी अपनी परिभाषा और नाम के आधार पर आज प्रस्तुत है।
अशोक के शासनकाल में और उसके शासन के पश्चात अनेक राजाओं के प्रचलित सिक्के और शिलालेख इसी लिपि के होने की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं।
अधिकांश बौद्ध स्तूपों में रखे हुए पत्थर चांदी या तांबे के पत्र, मूर्तियां यह सभी किसी एक भारतीय लिपि का संकेत करती हैं। खरोष्ठी दाहिनी ओर से बाई ओर लिखी जाती थी और तथ्य–अनुसार इसमें सीमित वर्ण थे। भारतीय मत संक्षेप में किंतु तर्क सहित इस लिपि के विषय में "संभव है कि ईरानियों के शासनकाल में उनके अधीन अनेक क्षेत्रों में जिस लिपि का प्रवेश था, खरोष्ठी लिपि ने अपना स्थान स्थापित किया। इसलिए फारसी के समान खरोष्ठी लिपि दाएं से बाएं लिखी गई। अर्थात फारसी लिपि के साथ-साथ खरोष्ठी का प्रचार भी इसी प्रकार हुआ।।
लेख का अगला क्रम देवनागरी लिपि का होगा, जिसमें हम देवनागरी की उत्पत्ति, विशेषता, त्रुटि और दोष के साथ उपस्थित होगें।
About The Author(s)
मेरा नाम अविरल अभिलाष मिश्र है।
मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी (सांध्य) कॉलेज से स्नातक किया है, वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस से परास्नातक कर रहा हूं।
नीलंबरा (कॉलेज मैगज़ीन) का संपादक भी रहा हूं।
इस समय साऊथ कैंपस हिंदी विभाग का छात्र प्रतिनिधि हूं तथा अनवॉइस्ड मीडिया के हिंदी संपादक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा हूं।
सादर!!