क्षणिक-शाश्वत

*क्षणिक-शाश्वत*
( *Temporary- Permanent* )

जो तुम कहोगे सब कुछ तो क्षणिक हैं……
तो मैं तुम्हें बतलाऊँ शाश्वत क्या है?

तुम्हारे बग़ीचे की ओंस ग़र क्षणिक है,
मग़र गंगा की वह कल-कल शाश्वत है।

मोह में फंसा इंसान ग़र क्षणिक है,
मग़र यर्थाथ जीवन का वह पथिक शाश्वत है।

बनते- बिगड़ते रिश्तों की दुनिया में, मिलन ग़र क्षणिक है,
मग़र निस्वार्थ प्रेम की खोज शाश्वत है|

सुख- दुःख की ये दुनिया ग़र क्षणिक है,
मग़र वैरागी का वैराग्य शाश्वत है।

जीवनपर्यन्त अलविदा न कह सका, माया का वो गागर क्षणिक है
जिसकी इक – इक बूँद से वंचित, ज्ञान का वह सागर शाश्वत है|

निशा का तिमिर ग़र क्षणिक है,
मग़र भानु का तेज़ शाश्वत है।

चकाचौंध का ये संसार ग़र क्षणिक है,
मग़र ह्रदयों में पड़ा अविरल विषाद शाश्वत है।

जन्म-मरण का ये फैर ग़र क्षणिक है,
मग़र परमात्मा का वह नाम शाश्वत है।

पिता की डांट ग़र क्षणिक है,
मग़र माँ का वह ममत्व शाश्वत है।

क्षणभंगुर है भँवरे का पुष्पों से अनुराग,
शाश्वत है उड़ा ले जाना उनका पराग |

आज का दिन ग़र क्षणिक है
मग़र बीते क्षण का हर अनुभव, शाश्वत है।

इसी क्षणिक-शाश्वत के खेल में ये दुनिया सारी है,
यथार्थ की राह पर, मिथ्या का पलड़ा भारी है।

जाग, अब,उठ,खड़ा हो ऐ इंसां, तेरे जीवन का सार अभी बाकी है।.

(A poem By Kapil Saran)

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